Monday, June 30, 2014

सुखी वही है जो अपना सुख बांटता है

एक पौराणिक कथा के मुताबिक नारद मुनि इधर-उधर घूमते हुए पृथ्वी लोक पहुंचे। सबसे पहले वह गरीबों की एक बस्ती में गए। वहां उन्होंने एक निर्धन व्यक्ति का हालचाल पूछा। उसने अपना दुखड़ा सुनाते हुए कहा- महाराज, मैं बहुत कष्ट में हूं। कृपया ऐसा कुछ करें कि इस नारकीय जीवन से छुटकारा मिले।

गरीब की झोपड़ी से निकलने के बाद नारद मुनि अमीरों के इलाके में पहुंचे। एक धनवान का हालचाल पूछा। उसने कहा- नारद जी, आप तो सबकी खबर रखते हैं। भगवान से कहकर मेरा कुछ भला करवाइए।

जब नारद जी वहां से निकले तो रास्ते में साधुओं के भेस में कुछ ढोंगी लोग मिले। नारद जी ने उनका भी हाल पूछा। ढोंगियों ने कहा- आप तो स्वर्ग का आनंद ले रहे हैं। एक बार हमें भी मौका दीजिए।

सबकी खबर लेने के बाद नारद जी स्वर्ग लोक लौट गए। उन्होंने भगवान विष्णु को सारा हाल कह सुनाया। भगवान विष्णु ने उस गरीब के विषय में कहा- मैंने उसे हर तरह का गुण प्रदान किया है। उसके पास बल और बुद्धि है। वह अपनी बुद्धि का प्रयोग कर तथा मेहनत करके अपनी और अपने परिवार की स्थिति सुधार सकता है। अगर वह बैठ कर यह प्रतीक्षा करता रहे कि कोई दिव्य पुरुष आकर उसके परिवार में धन वर्षा कर दे तो यह असंभव है। यह उसकी मूर्खता होगी। संसार का कोई भी कार्य छोटा नहीं होता है।

भगवान विष्णु ने धनवान के बारे में कहा- मैंने उसे इसीलिए अधिक धन प्रदान किया था ताकि वह अपने अतिरिक्त धन को गरीबों में बांटे लेकिन उसने अपना धन वंचितों को न देकर अपने पास ही रखा। इसलिए उसे चैन नहीं मिल रहा। वह मानसिक कष्ट में पड़ा हुआ है और उन ढोंगी साधुओं को देखो। वे लोगों को लूट रहे हैं। उनका उद्देश्य केवल अपने लिए सुख प्राप्त करना है। उन्हें कभी स्वर्ग का आनंद नहीं मिल सकता है।

इस कथा में जीवन के एक महत्वपूर्ण सत्य की ओर इशारा किया गया है। बताया गया है कि जीवन में सभी तरह के सुख परिश्रम से ही मिलते हैं। बगैर कर्म किए कुछ भी प्राप्त करने की आकांक्षा गलत है। ईश्वर ने या प्रकृति ने मनुष्य को शरीर के अलावा बल और बुद्धि प्रदान किया है ताकि वह पृथ्वी पर उपलब्ध संसाधनों का अपने लिए प्रयोग कर सके। लेकिन इंसान मेहनत और त्याग करना ही नहीं चाहता है। यह एक आम प्रवृत्ति है। कुछ लोग अपनी गरीबी के लिए ईश्वर को या अपने भाग्य को कोसते रहते हैं। वे चाहते हैं कि ईश्वर उनके सामने सब सांसारिक चीजें लाकर रख दें जिससे उनकी जिंदगी सुधर जाए। वे बिना कष्ट उठाए सारे सुख उठा लेना चाहते हैं। कुछ लोग शुरू में थोड़ी मेहनत कर धन कमा लेते हैं लेकिन धीरे-धीरे उनमें आलस्य और अहंकार आ जाता है। वे अपनी जमीन भूल जाते हैं। वे केवल अपने स्वार्थ के लिए जीने लगते हैं। दूसरों से कटकर जीने से उनके भीतर निराशा, अवसाद (डिप्रेशन) और असुरक्षा आदि घर करने लगती है। उनका जीवन कष्टमय हो जाता है। असल में लोगों को यह अहसास ही नहीं रहता कि सुख का रास्ता भी त्याग से होकर गुजरता है।

जो व्यक्ति दूसरों के भले के लिए सोचता है, उनके लिए अपनी संपदा का कुछ हिस्सा त्याग करता है, वह संतुष्ट रहता है। सुख बांटने से ही बढ़ता है। स्वार्थ और अहंकार से ही समाज में शोषण, अत्याचार और भ्रष्टाचार बढ़ता है। अगर हर व्यक्ति की सोच का दायरा बड़ा हो हो तो समाज की कई बुराइयां अपने आप खत्म हो जाएंगी। हमें एक तरफ तो यह मानना होगा कि हम अपने श्रम से कुछ भी हासिल कर सकते हैं लेकिन दूसरी तरफ संतोष का भाव भी मन में रखना होगा। और जहां तक हो सके दूसरों को भी सुखी बनाने का प्रयास करना होगा।

Sunday, June 22, 2014

Testing for Gossip

In ancient Greece, Socrates was reputed to hold knowledge in high esteem. One day an acquaintance met the great philosopher and said, "Do you know what I just heard about your friend?"

"Hold on a minute", Socrates replied. "Before telling me anything I'd like you to pass a little test. It's called the Triple Filter Test."

"Triple filter?"

"That's right", Socrates continued. "Before you talk to me about my friend, it might be a good idea to take a moment and filter what you're going to say. That's why I call it the triple filter test. The first filter is Truth. Have you made absolutely sure that what you are about to tell me is true?"

"No,",the man said, "Actually I just heard about it and ..."

"All right", said Socrates. "So you don't really know if it's true or not. Now let's try the second filter, the filter of Goodness. Is what you are about to tell me about my friend something good?"

"No, on the contrary."

"So", Socrates continued, "you want to tell me something bad about him, but you're not certain it's true. You may still pass the test though, because there's one filter left: the filter of Usefulness. Is what you want to tell me about my friend going to be useful to me?"

"No, not really."

"Well", concluded Socrates, "if what you want to tell me is neither true nor good nor even useful, why tell it to me at all?"